दरिया | River

कुछ यूं ज़िंदगानी से रिश्ता रहा
वह ठहरी नहीं मैं गुज़रता रहा

दो गुलपोश आँखें मुख़ातिब रहीं
मैं ग़ज़ल रात भर युहीं कहता रहा

तुम थे तो लज़्ज़त थी हर चीज़ में
महफ़िल में अब वो मज़ा न रहा

पुर रंग-ओ-बू था मौसम मगर
वो क्या गए सब जाता रहा

खुदा बन के सूली पे लटका दिया
वो इंसां की मानिंद सेह्ता रहा

कदमबोस थीं मुश्किलें बे-पनाह
दरिया था मैं भी बहता रहा



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